अंजान आशियाँ

हवाओं में बहकर तू लहरों में आया था,
फिर रेतों का किला हमने यादों से सजाया था,
कभी चमके थे हम रातों में इस तरह,
सूरज भी ज़मीं पर हमारा इस्तक़बाल करने आया था।

तुझे ख्वाबों को पकड़ कर चाँद तक जाना था,
अंजान ही सही पर तेरा कहीं और आशियाना था,
तू आदतों में गुम था, मुझे समंदर दिखता था,
मैं इस मिट्टी से बना एक रोज़ मुझे इस मिट्टी में समां जाना था।

तेरे बिन ज़िन्दगी की बस इतनी कहानी है,
गहराईयों के अंधेरों में ज़रा साफ़-सा पानी है,
न कभी समझा था तू, न कभी समझूंगा मैं,
चल अब चले,
तेरे संग गहरा उतरने की मेरी आदत पुरानी है।

– Divyansh Srivastava

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