प्रेम की परिभाषा

“मन की तरंग मारे हिलोर,
एक रागिनी सी चलती है।
तू पास हो या दूर हो,
तेरे संग ही मचलती है।।

ये स्वप्न है या मोह जाल,
जो दिनबदिन उलझती है।
ये बन चुकी है रेत सी,
बस यूँ ही फिसलती है।।

जैसे राधा भी श्याम संग,
प्रेम में संवरती है।
जैसे चाँद से चकोर दूर,
हर रात में बिलखती है।।

आदित्य के ही तेज से,
तो चाँदनी चमकती है।
फिर भी ग्रहण के वक़्त,
शशि अंधकार बन उभरती है।।

जिनसे मिले है सुख कभी,
दुःख भी उन्ही से मिलती है।
जितना अगाध प्रेम हो,
उतना ही ये अखरती है।।

यदि प्रेम है मिठास तो,
चींटी भी इसमें पड़ती है।
यदि प्रेम है एक वस्त्र तो,
सूते भी तो उधड़ती है।।

वैसे प्रेम एक सुमन है,
जो ऋतू अनुरूप निखरती है।
वो अग्नि भी है प्रेम,
जो सावन में भी सुलगती है।।

धन ज्ञान से परे होकर,
समान ही परखती है।
जो प्रेम है निःस्वार्थ भाव,
उसे ही स्वीकृत करती है।।

आकांक्षाए सारे दुनिया के,
अक्षांश से गुज़रती हैं।
यदि हो समीप प्रेम तो,
उसमें ही सब सिमटती हैं।।”

– EKTA SINGH SHRINET